दिल्ली छात्रसंघ चुनाव मे नही चली सियासी हवा
|ब्यूरो कार्यालय , नई दिल्ली । दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव के नतीजों में भारतीय जनता पार्टी की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने परचम लहराते हुए चारों सीटों पर कब्जा कर लिया है। एबीवीपी ने 18 साल बाद दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में सभी चारों सीटों पर जीत हासिल की है। डीयू छात्र संघ के अध्यक्ष पद के लिए मोहित नागर ने जीत हासिल की, जबकि उपाध्यक्ष के रूप में प्रवेश मलिक विजयी हुए हैं। सचिव के रूप में कनिका और संयुक्त सचिव के रूप में आशुतोष माथुर ने जीत हासिल की। इस चुनाव में डीयू ने देश के राजनीतिक मिजाज के हिसाब से वोट दिया लेकिन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में रवैया इसके ठीक उलट रहा। वैसे इन चुनाव में ये भी उल्लेखनीय है कि डीयू के चुनाव में जहां वामपंथी संगठन आइसा को मिले वोट बढ़े हैं तो वहीं जेएनयू में एबीवीपी ने भी पैठ बनाई है। हालांकि कांग्रेस समर्थित एनएसयूआई का डीयू में एक भी सीट न जीत पाना उसके लिए झटका है। डीयू में एबीवीपी को जहाँ चार साल के स्नातक कार्यक्रम के पुरजोर विरोध का फायदा मिलता दिखा है वहीं आइसा जैसे संगठन के लिए फायदे की बात ये है कि उनकी अभिभावक पार्टी कभी सत्ता में ही नहीं रही तो अपने किसी रिकॉर्ड का बचाव करने की नौबत ही नहीं आती। दिल्ली स्थित दो विश्वविद्यालयों के छात्र संघ चुनाव नतीजों में सबसे उल्लेखनीय तथ्य यही है कि जेएनयू के वामपंथी किले को एबीवीपी भेद नहीं पाई। यह कहना शायद सही नहीं होगा कि अपने आसपास के माहौल से प्रभावित न रहने की जेएनयू की परंपरा इस बार भी कायम रही। इसलिए कि सेंट्रल पैनल में उपाध्यक्ष और महासचिव पदों पर विजयी उम्मीदवारों के निकटतम प्रतिद्वंद्वी एबीवीपी के ही प्रत्याशी रहे। फिर एबीवीपी का दावा है कि उसके कई काउंसलर जीते हैं। इसके बावजूद जेएनयू में उभरी सूरत उस राजनीतिक वातावरण के विपरीत है, जो 2014 के आम चुनाव के नतीजों से देश में बना है। दूसरी तरफ दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के छात्रों पर लोकसभा चुनाव में चली ‘मोदी लहर’ का खूब असर नजर आया। नतीजतन, 18 वर्ष बाद सभी चार पद एबीवीपी की झोली में जा गिरे। अध्यक्ष को छोड़ दें तो बाकी तीन पदों पर मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस समर्थित- नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) डीयू में काफी मतों से पिछड़ी। तो प्रश्न है कि आखिर इन अंतर्विरोधी परिणामों को कैसे समझा जाए? बहरहाल, इस सवाल पर आने से पहले यह बताना जरूरी है कि इन दोनों विश्वविद्यालयों में सीपीआई (एमएल-लिबरेशन) से जुड़ी ऑल इंडिया स्टूडेंड्स एसोसिएशन (आइसा) कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों को ना चाहने वाले छात्रों की पहली पसंद बनी हुई है। बल्कि इस भूमिका में उसने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली है। डीयू में उसके वोटों में इस बार खासा इजाफा हुआ। जेएनयू में पिछले छात्र संघ में उसके पदाधिकारियों पर यौन शोषण जैसे गंभीर आरोप लगे थे। फिर भी इस बार वह वहां सेंट्रल पैनल के चारों पद जीतने में सफल रही, हालांकि उसके वोटों में गिरावट आई है। फिलहाल, सोचने वाली बात यह है कि आखिर उसकी राजनीति में ऐसा क्या है, जो स्थापित राजनीतिक धाराओं का विकल्प चाहने वाले युवाओं को आकर्षित कर रहा है? गौरतलब है कि जेएनयू और डीयू की छात्र राजनीति की संस्कृति शुरू से ही अलग रही है। जेएनयू कैंपस यूनिवर्सिटी है, उसे एक खास योजना के तहत बनाया गया था। वहां पढ़ाई-लिखाई का सबसे अलग माहौल रहा है । वहां छात्र राजनीति शुरू से ही अपेक्षाकृत उच्च बौद्धिक स्तर लिए रही। इसमें विचारधारात्मक बहस-मुबाहिसे की निर्णायक भूमिका बनी रही है। महज लुभावने नारों, जुमलेबाजी या जज्बाती भाषणों से इसमें पैठ बनाना अब तक संभव नहीं हुआ है। यही माहौल यहां वामपंथी छात्र संगठनों की ताकत है। सभी वामपंथी संगठनों को मिले वोटों को जोड़ कर देखा जाए तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह वातारण आज के इस दौर में भी कितना सशक्त है. जबकि देश की सियासत में वामपंथी दलों का अभूतपूर्व पराभव हो गया है.ऐसे में कहा जा सकता है कि दोनों विश्वविद्यालयों में दिखे रुझान उनकी अपनी-अपनी परंपरा के अनुरूप ही हैं। देश की सियासी हवा उन्हें ज्यादा नहीं बदल पाई।
दीपक कुमार
ब्यूरो कार्यालय, नई दिल्ली