सामाजिक संतुलन की महान योद्धा श्रीमती एन्नी बेसेण्ट !
|भारत को अपना लेने के कारण भारतीय थीं डॉ॰ एनी बेसेन्ट !
डॉ॰ एनी बेसेन्ट का जन्म लन्दन शहर में १८४७ में हुआ । आज दुनिया इनकी 168वीं जयंती मना रही है । इनके अंग्रेज पिता पेशे से डाक्टर थे । पिता की डाक्टरी पेशे से अलग गणित एवं दर्शन में गहरी रूचि थी। इनकी माता एक आदर्श आयरिस महिला थीं। डॉ॰ बेसेन्ट के ऊपर इनके माता पिता के धार्मिक विचारों का गहरा प्रभाव था। डॉ॰ बेसेन्ट के जीवन का मूलमंत्र था ‘कर्म’। वह जिस सिद्धान्त पर विश्वास करतीं उसे अपने जीवन में उतार कर उपदेश देतीं। वे भारत को अपनी मातृभूमि समझती थीं। वे जन्म से आयरिश, विवाह से अंग्रेज तथा भारत को अपना लेने के कारण भारतीय थीं। तिलक, जिन्ना एवं महात्मा गाँधी तक ने उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा की। वे भारत की स्वतंत्रता के नाम पर अपना बलिदान करने को सदैव तत्पर रहती थीं। वे भारतीय वर्ण व्यवस्था की प्रशंसक थीं।
सामाजिक सौहार्द कायम करने की पहल था ब्रदर्स आफ सर्विस !
उनके सामने समस्या थी कि इसे व्यवहारिक कैसे बनाया जाय ताकि सामाजिक तनाव कम हो। उनकी मान्यता थी कि शिक्षा का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए। शिक्षा में धार्मिक शिक्षा का समावेश हो। ऐसी शिक्षा देने के लिए उन्होंने १८९८ में वाराणसी में सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल की स्थापना की। सामाजिक बुराइयों जैसे बाल विवाह, जाति व्यवस्था, विधवा विवाह, विदेश यात्रा आदि को दूर करने के लिए उन्होंने ‘ब्रदर्स आफ सर्विस‘ नामक संस्था का संगठन किया। इस संस्था की सदस्यता के लिये आवश्यक था कि उसे नीचे लिखे प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करना पड़ता था –
१. मैं जाति पाँति पर आधारित छुआछूत नहीं करुँगा।
२. मैं अपने पुत्रों का विवाह १८ वर्ष से पहले नहीं करुँगा।
३. मैं अपनी पुत्रियों का विवाह १६ वर्ष से पहले नहीं करुंगा।
४. मैं पत्नी, पुत्रियों और कुटुम्ब की अन्य स्त्रियों को शिक्षा दिलाऊँगा; कन्या शिक्षा का प्रचार करुँगा। स्त्रियों की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करुँगा।
५. मैं जन साधारण में शिक्षा का प्रचार करुँगा।
६. मैं सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में वर्ग पर आधारित भेद-भाव को मिटाने का प्रयास करुँगा।
७. मैं सक्रिय रूप से उन सामाजिक बन्धनों का विरोध करुँगा जो विधवा, स्त्री के सामने आते हैं तो पुनर्विवाह करती हैं।
८. मैं कार्यकर्ताओं में आध्यात्मिक शिक्षा एवं सामाजिक और राजनीतिक उन्नति के क्षेत्र में एकता लाने का प्रयत्न भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व व निर्देशन में करुंगा।
डॉ॰ एनी बेसेन्ट की मान्यता थी कि बिना राजनैतिक स्वतंत्रता के इन सभी कठिनाइयों का समाधान सम्भव नहीं है।
सर्वांगीण विकास के लिये नारी अधिकारों को सुरक्षित करना आवश्यक !
डॉ॰ बेसेन्ट ने निर्धनों की सेवा का आदर्श समाजवाद में देखा। गरीबी दूर करने के लिये उनका विश्वास था कि औद्योगीकरण हो। उन्होंने देखा कि नारी को किसी प्रकार की स्वतंत्रता प्राप्त नहीं थी। वे लोग भोग की वस्तु समझी जाती थीं। इस दु:खद स्थिति से डॉ॰ बेसेन्ट का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नारी सुरक्षा का प्रश्न उठाया और जोर देकर कहा कि समाज में सर्वांगीण विकास के लिये नारी अधिकारों को सुरक्षित करना आवश्यक है। डॉ॰ बेसेन्ट प्राचीन धर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की समर्थक थीं। वर्ण व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य कार्य विभाजन था जिसके अनुसार समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्यों को करने की योग्यता द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र का स्थान प्राप्त करता था। वे कहा करती थीं कि महाभारत के अनुसार ब्राह्मण में शूद्र के गुण हैं तो वह शूद्र है। शूद्र में अगर ब्राह्मण के गुण हैं तो वह ब्राह्मण समझा जायगा। उस समय विदेश यात्रा को अधार्मिक समझा जाता था। उन्होंने बताया कि प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है कि श्याम, जावा, सुमात्रा, कम्बोज, लंका, तिब्बत तथा चीन आदि देशों में हिन्दू राज्य के चिह्न पाये गये हैं। अत: हिन्दूओं की विदेश यात्रा प्रमाणित हो जाती है। उन्होंने विदेश यात्रा को प्रोत्साहन दिये जाने का समर्थन किया। उनके अनुसार आध्यात्मिक बुद्धि एवं शारीरिक शक्ति के सम्मिश्रण से राष्ट्र का उत्थान करना प्राचीन भारत की विशेषता रही है।
बहु विवाह को वे नारी गौरव का अपमान मानती थीं !
वे विधवा विवाह को धर्म मानती थीं। उनकी धारणा थी कि प्रौढ़ विधवाओं को छोड़कर किशोर एवं युवावस्था की विधवाओं को सामाजिक बुराई रोकने के लिए विवाह करना आवश्यक है। वे अन्तर्जातीय विवाहों को भी धर्म सम्मत मानती थीं। बहु विवाह को वे नारी गौरव का अपमान एवं समाज का अभिशाप मानती थीं। किसी भी देश के निर्माण में प्रबुद्ध वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह प्रबुद्ध वर्ग उस देश की शिक्षा का उपज होता है। अत: शिक्षा व्यवस्था को वे अत्यधिक महत्व देती थीं। उन्होंने शिक्षा पाठ्यक्रमों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा को अनिवार्य रूप से पढ़ाये जाने तथा उसे प्राचीन भारतीय आदर्शों पर आधारित होने के लिये जोर दिया। उनकी धारणा थी कि प्रत्येक भारतीय को संस्कृत तथा अंग्रेजी दोनों का ज्ञान होना चाहिये।
भारतीय राजनीति की अग्रणी विभूति !

Aides de camp It was to Annie Besant (centre), Tilak and Jinnah that Gandhi turned to for recruiting soldiers for Britain’s war
१९१३ से १९१९ तक वह भारतीय राजनीतिक जीवन की अग्रणी विभूतियों में थीं। सितम्बर १९१६ में उन्होंने होमरूल लीग (स्वाराज्य संघ) की स्थापना की और स्वराज्य के आदर्श को लोकप्रिय बनाने के लिये प्रचार किया किन्तु १९१९ के बाद वे अकेली पड़ गईं। इसका तात्कालिक कारण बाल गंगाधर तिलक से उनका विवाद होना था। जब गाँधी जी ने अपना सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ किया तो वह भारतीय राजनीति की मुख्य धारा से और भी पृथक् हो गई। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि एनी बेसेन्ट ने गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन की अत्यन्त असंयमित भाषा में भर्त्सना करते हुये उनके आन्दोलन को क्रान्तिकारी, अराजकतावादी तथा घृणा और हिंसा को उभाड़ने वाला आन्दोलन निरूपित किया था। गाँधी के दर्शन एवं नेतृत्व को उन्होंने स्वतंत्रता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बताया था। उन्होंने गाँधी जी को अस्पष्ट स्वराज देखने वाला और रहस्यवादी राजनीतिज्ञ बताया। उन्हें इस बात से सन्देह था कि गाँधी जी सच्चे हृदय से पश्चाताप, उपवास, तपस्या आदि में विश्वास करते हैं। उन्होंने देश की जनता को चेतावनी दी थी कि यदि गाँधीवादी प्रणाली को अपनाया गया तो देश पुन: अराजकता के खड्ड में जा गिरेगा।
प्राचीन हिन्दू सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध किया
१८७८ में ही उन्होंने प्रथम बार भारतवर्ष के बारे में अपने विचार प्रकट किये। उनके लेख तथा विचारों ने भारतीयों के मन में उनके प्रति स्नेह उत्पन्न कर दिया। अब वे भारतीयों के बीच कार्य करने के बारे में दिन-रात सोचने लगीं। १८८३ में वे समाजवादी विचारधारा की ओर आकर्षित हुईं। उन्होंने ‘सोसलिस्ट डिफेन्स संगठन’ नाम की संस्था बनाई। इस संस्था में उनकी सेवाओं ने उन्हें काफी सम्मान दिया। इस संस्था ने उन मजदूरों को दण्ड मिलने से सुरक्षा प्रदान की जो लन्दन की सड़कों पर निकलने वाले जुलूस में हिस्सा लेते थे।
१८८९ में एनी बेसेन्ट थियोसोफी के विचारों से प्रभावित हुईं। उनके अन्दर एक शक्तिशाली अद्वितीय और विलक्षण भाषण देने की कला निहित थी। अत: बहुत शीघ्र उन्होंने अपने लिये थियोसोफिकल सोसायटी की एक प्रमुख वक्ता के रूप में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को थियोसोफी की शाखाओं के माध्यम से एकता के सूत्र में बाधने का आजीवन प्रयास किया। उन्होंने भारत को थियोसोफी की गतिविधियों का केन्द्र बनाया।
वाराणसी में विशाल जन-समूह ने अस्थि विसर्जिन मे हिस्सा लिया
उनका भारत आगमन १८९३ में हुआ। सन् १९०६ तक इनका अधिकांश समय वाराणसी में बीता। वे १९०७ में थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्षा निर्वाचित हुईं। उन्होंने पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की कड़ी आलोचना करते हुए प्राचीन हिन्दू सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध किया। धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में उन्होंने राष्ट्रीय पुनर्जागरण का कार्य प्रारम्भ किया। भारत के लिये राजनीतिक स्वतंत्रता आवश्यक है इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये उन्होंने ‘होमरूल आन्दोलन’ संगठित करके उसका नेतृत्व किया।
२० सितम्बर १९३३ को वे ब्रह्मलीन हो गई। आजीवन वाराणसी को ही हृदय से अपना घर मानने वाली बेसेन्ट की अस्थियाँ वाराणसी लाई गयीं और शान्ति-कुञ्ज से निकले एक विशाल जन-समूह ने उन अपशेषों को ससम्मान सुरसरि को समर्पित कर दिया।
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