सावधान ! ये दूरगामी विवाद का प्रथम चरण है
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विविधता मे एकता का संगम संजोये इस देश में विकास के लिये बहुत सुगम मार्ग था,लेकिन देश के चंद कथित भाग्य विधाता इसे समय- समय पर बरगलाते रहे और देशवासी चुपचाप संयम धरे पीछे -पीछे चलते रहे। आज भी हम उबासी ले रहें हैं। किसी भी प्रचीन घटना ,ज्ञान, परम्परा,रुढिवाद का दोष ब्राम्हणों पर मढ. कर इस देश की राजनीति आगे बढ़ती रही है। सच कहें तो ब्राम्हणवाद से आगे निकलने की कूबत किसी नेता ने नहीं दिखाई। वर्तमान केन्द्रसरकार समझती रही है कि उसे देश की जागरुक जनता ने अपार समर्थन दिया है लेकिन उनकी गलतफहमी दिल्ली विधानसभा चुनाव मे दूर हो गयी । फिर भी यहाॅ तो जनता को अपने बल का ज्ञान स्वयं नही होता यही वह कारण है जिससे मतलबपरस्तो की चाॅदी -चाॅदी होती जा रही है। आज देश में महाराष्ट्र ,गुजरात, हरियाणा ,मध्यप्रदेश में गोकसी बंद करने के प्रयोगवादी प्रयास किये जा रहे हैं। विकास के किस घोषणा पत्र से यह बात निकली है !यह प्रयोग कितना आवश्यक है ! देश व जनहित में। निःसंकोच यह दूरगामी विवाद का प्रथम चरण है जो आने वाले समय मे गोरख पाण्डे की कविता ‘…अबकी बार खूब उगेगी फसल मतदान की’ ,की गवाही देगा। दोष उन लोगों का नहीं जो विवादों का बीजारोंपण कर रहे हैं पूरे समाज का है .हम सदैव दकियानूसी परम्परा के वाहक बने रहना चाहते हैं । इतिहास के पन्नों , धर्मग्रंथ में भी कहीं खाने -पीने पर प्रतिबंध नहीे लगाया हैं। ब्राम्हण व ब्रम्हणवाद को जब मौका देखा लोगों ने भुनाने का काम किया। इस बार गौवध व बच्चे पैदा करने की वकालत करने वाले सरकारी नेता नफरत के राजनीति का बीजारोपण कर रहें है। भारतीय समाज सावधान!
निःसंदेह गाय पूज्यनीय रही है
…खा लेती है भूसा चोकर
देती दूध मधुर खुशहोकर
मरने पर भी आती काम
चमड़े से है जूते बनते
जिन्हे पहनकर हम खुश होते…
ये कविता 100 साल की उम्र पार कर चुकीं मेरी नानी सुनाती हैं। यह कविता उनको बचपन मे बड़ी गोल में रटाया गया था। जाहिर है दैनिक जीवन में गाय के उपयोग ने उसे परिवार का सदस्य व धीरे धीरे माता का स्थान दिला दिया। यदि हम धार्मिक आधार को ऐसे ही बल देते रहे तो सृष्टि की समस्त रचना किसी न किसी भाॅति पूज्य है और पूज्य बनायी जा सकती है। 21वीं सदी का प्रौढ कम से कम यह समझ सकता है कि आज जानवरों में कुत्ता आदमी के सबसे करीब है कल किसी तरह वह भी देवता बन जायेगा। भगवान से भी हम अपने स्वार्थ की ही कामना करते हैं। इसलिये आडम्बर से दूर होकर प्रगति का मार्ग तलाशें! प्रधानमंत्री मोदी आडम्बरवादी देश के रुप मे भारत का प्रतिनिधित्व करना चाहेंगे! संप चूहों के देश भारत की बाात उन्ही से किसी विदेशी ने की थी जो वह अपने भाषण में कई बार जिक्र कर चुके हैं।
नहीे रही उपयोगिता
गाय और बैलों को बचाने और बढ़ाने का एक मात्र तरीका ये है कि गाय से बछड़े हों और उन बछड़ों से बैल तैयार किए जाएं. और उन बैलों का इस्तेमाल खाना, चमड़ा और हड्डियों से बनने वाले दूसरे उत्पाद तैयार करने के लिए किया जाए. जानवरों को बड़े पैमाने पर बचाना उनके आर्थिक इस्तेमाल के बगैर संभव नहीं है. किसान गाय और बैलों को इसलिए नहीं पालते कि वे उन्हें अपने घरों के आगे सजाने के लिए खड़ा कर दें. उनका एक आर्थिक मक़सद भी होता है. खेती के मशीनीकरण के बाद जब एक बार इन जानवरों का श्रम काम का नहीं रह जाता है, तो फिर उनकी उपयोगिता केवल मांस और चमड़ा देने वाले जानवर के तौर पर रह जाती है गोहत्या पर कभी प्रतिबंध नहीं रहा है .पांचवीं सदी से छठी शताब्दी के आस-पास छोटे-छोटे राज्य बनने लगे और भूमि दान देने का चलन शुरू हुआ. इसी वजह से खेती के लिए जानवरों का महत्व बढ़ता गया. ख़ासकर गाय का महत्व भी बढ़ा. उसके बाद धर्मशास्त्रों में ज़िक्र आने लगा कि गाय को नहीं मारना चाहिए.
भारत में बीफ़ राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मुद्दा है.
सारा विवाद 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ जब आर्य समाज की स्थापना हुई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने गोरक्षा के लिये अभियान चलाया. ऐसा चिह्नित कर दिया गया कि जो ‘बीफ़’ बेचता और खाता है वो मुसलमान है. पांचवीं-छठी शताब्दी तक दलितों की संख्या भी काफ़ी बढ़ गई थी. उस वक़्त ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्रों में यह भी लिखना शुरू किया कि जो गोमांस खाएगा वो दलित है.
किसी ईश्वर या अल्लाह ने लोगों से केवल शाकाहारी हो जाने के लिए नहीं कहा है. धर्मशास्त्रों में गोहत्या कोई बड़ा अपराध नहीं है इसलिए प्राचीनकाल में इसपर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया. सज़ा के तौर सिर्फ इतना तय किया गया कि गोहत्या करने वाले को ब्राह्मणों को भोजन खिलाना पड़ेगा. मुग़ल बादशाहों के दौर में राज दरबार में जैनियों का प्रवेश था, इसलिए कुछ ख़ास ख़ास मौक़ों पर गोहत्या पर पाबंदी रही. मांस खाने के खिलाफ आदि शंकराचार्य की मुहिम शुरू होने तक जैन बनियों को छोड़कर द्विज भी गो मांस खाते थे.
भारत में बीफ़ से 13,000 करोड़ रुपए की कमाई
हिंदू बहुल भारत से बीफ़ का बड़े पैमाने पर निर्यात चौंकाने वाली बात लगती है. मगर भारतीय बीफ़ दरअसल भैंस का मांस है जिसकी मांग दुनिया भर में बढ़ रही है. अमरीकी कृषि विभाग का कहना है कि बीफ़ के निर्यात में दुनिया में नंबर एक देश ब्राज़ील को भारत जल्द ही पीछे छोड़ सकता है. ‘पिंक रेवल्यूशन’ या गुलाबी क्रांति कहे जाने वाले इस कारोबार से भारत ने पिछले साल 13,000 करोड़ रुपए से अधिक की कमाई की.
. गोहत्या पर प्रतिबंध सियासी रंग देने की कोशिश
कई हिंदू संगठनों को शक है कि बीफ़ के एक्सपोर्ट में गाय का माँस भी शामिल है.विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय महासचिव खेमचन्द्र शर्मा ने कहा, “भारत में मांस के लिए गौ हत्या अब भी की जा रही है, हम बार-बार इसको रोकने के लिए केन्द्रीय क़ानून की मांग करते रहे हैं.”कुछ महीनों पहले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत सरकार की बीफ़ एक्सपोर्ट नीति के बारे में कहा था कि गुलाबी क्रांति के नाम पर यूपीए सरकार गोवध को बढ़ावा दे रही है.लेकिन सरकार ने मोदी के बयान को भ्रामक और भड़काऊ बताते हुए पलटवार किया था.वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने मोदी को पत्र लिखकर कहा था कि मांस निर्यात नीति को सियासी रंग देने की कोशिश की जा रही है. महाराष्ट्र में गाय की हत्या और गो मांस की खरीद बिक्री पर लगाया गया प्रतिबंध राज्य की कृषि अर्थव्यवस्था को एक बड़े संकट में डालने जा रहा है. अगर ऐसे ही कदम अन्य सभी राज्यों में भी उठाए जाने लगे तो इस तरह की नीति पूरे भारत की कृषि अर्थव्यवस्था के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है. महाराष्ट्र हो या फिर कोई दूसरा राज्य, कई आदिवासी जनजातियां, दलित जातियां और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी गो मांस खाते हैं.
हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा
अंबेडकर ने प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को साबित करने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया. अपने लेख में अंबेडकर हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है.
उनके मुताबिक, “गाय को पवित्र माने जाने से पहले गाय को मारा जाता था. उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पीवी काणे का हवाला दिया. काणे ने लिखा है, ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी, लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेई संहिता में कहा गया कि गोमांस को खाया जाना चाहिए.” (मराठी में धर्म शास्त्र विचार, पृष्ठ-180). अंबेडकर ने लिखा है, “ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है.” ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं, “उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए’. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था.” अंबेडकर लिखते हैं, “इस सुबूत के साथ कोई संदेह नहीं कर सकता कि एक समय ऐसा था जब हिंदू, जिनमें ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण दोनों थे, न सिर्फ़ मांस बल्कि गोमांस भी खाते थे.”
कोई भी सरकार अगर लोगों की खान-पान की आदतों पर प्रतिबंध लगाती है तो उसे न केवल एक मजहबी सरकार के तौर पर देखा जाएगा बल्कि उसे फासीवादी भी करार दिया जाएगा. बौद्ध, क्रिश्चियन और मुसलमान मांस खाते हैं और शाकाहारी खाना भी. भारत के दलित बहुजन और आदिवासी भी इन्हीं की तरह खान-पान की आदतें रखते हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी इस तरह की नीतियों के रास्ते देश को खाद्य संकट और ऊर्जा की कमी की ओर धकेल रही है.
सबसे बड़ा संकट है कि ऐसी सरकारें भावी पीढ़ी को अनायास ही साम्प्रदायिकता का बटबृक्ष सौंपने का दुस्साहसिक कार्य कर रहीं है।सत्ता के करीब पहुॅच कर जब मनमानी शुरु हो जाती है तो उसे ब्राम्हणवाद का नाम दिया जाता है। हर उॅची चीज उॅचा वर्ग ब्राम्हण नही होता! याद रखिये ब्रम्हाांण्ड की सबसे सुन्दर चीज ब्राम्हण होता है जो बनने का प्रयास सभी करते है पर वास्तव मे कोई विरला ही बनता है। जबकि देश के कथित भाग्य विधाता स्वनाम धन्य नेता इसी का छद्म रुपांतर करके इसे देश को तोड़ने मे उपयोग करते हैं। हम इंसान है तो हमारे कर्म आधारित चरण बने हैं अच्छा करके सभी अच्छा बन सकते हैं। ऐसे में देश में जो भी नागरिक हैं उनके खाने पहनने रहने जीने पर प्रतिबंध लगाना न्याय संगत नही है।
Dhananjay